षटतिला एकादशी 4 फरवरी को है। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को अतिप्रिय है। माघ माह सनातन धर्म में नरक से मुक्ति और मोक्ष दिलाने वाला माना जाता है। यह एकादशी इस बात को बताती है कि धन आदि के मुकाबले अन्नदान सबसे बड़ा दान है। मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य ने दाल्भ्य के नरक से मुक्ति पाने के उपाय के विषय में बताते हुए कहा- मनुष्य को माघ माह में अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए क्रोध, अहंकार, काम, लोभ और चुगली आदि का त्याग करना चाहिए।
माघ मास के कृष्णपक्ष की षट्तिला एकादशी व्रत में तिल का विशेष महत्व माना गया है-
तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।
तिलदाता च भोक्ता च षट्तिला पापनाशिनी॥ अर्थात इस दिन तिल का इस्तेमाल स्नान करने, उबटन लगाने और होम करने में करना चाहिए, साथ ही तिल मिश्रित जल पीना चाहिए, तिल दान करना चाहिए और तिल का भोजन करना चाहिए। इससे पापों का नाश होता है। तिल से भरा हुआ बर्तन दान करना बेहद शुभ माना जाता है। तिलों के बोने पर उनसे जितनी शाखाएं पैदा होंगी, उतने हजार बरसों तक दान करने वाला स्वर्ग में निवास करता है। इस एकादशी के बारे में एक कथा प्रचलित है- एक ब्राह्मणी श्री हरि में बड़ी भक्ति रखती, एकादशी व्रत करती। परंतु उसने कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं किया था। एक दिन भिक्षा लेने कपाली का रूप धारण कर भगवान पहुंचे और भिक्षा की याचना की। गुस्से में ब्राह्मणी ने मिट्टी का एक बड़ा ढेला दिया। कुछ समय बाद ब्राह्मणी देह त्याग कर वैकुंठ पहुंची।
लेकिन उसे वहां मिट्टी के बने मनोरम मकान ही मिले, अन्न नहीं। दुखी हो उसने श्री हरि से इसका कारण पूछा तो पता लगा कि ऐसा अन्नदान नहीं करने की वजह से है और निवारण हेतु उसे षट्तिला एकादशी का व्रत करना चाहिए। ब्राह्मणी ने व्रत किया, तब उसका मकान अन्न से भर गया। इसलिए तिल और अन्नदान बहुत जरूरी है। नारियल अथवा बिजौरे के फल से विधि-विधान से पूजा कर श्री हरि को अर्घ्य देना चाहिए। धन न हो तो सुपारी का दान करें।
जो लोग एकादशी व्रत नहीं कर पाते हैं, उन्हें एकादशी के दिन खान-पान एवं व्यवहार में सात्विक रहना चाहिए। एकादशी के दिन लहसुन, प्याज, मांस, मछली, अंडा आदि नहीं खाएं। झूठ, ठगी, मैथुन आदि का त्याग करें। एकादशी के दिन चावल खाना भी वर्जित है।
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